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IBN7 पर हमला लोकतंत्र पर हमला नहीं है! Attack on IBN7 is not attack on Democracy!

The Shiv Shena ant its child Maharastra Nav Nirman Sena continually  destroying the ethos of this nation. They are doing what they think. And I do not know what doing Congress Government there. It is not that Congress who is in power is not doing any thing means they are equally part of this deeds? In fact Congress thing that if they cracj down on Shiv Sena and MNS than Marathi Manush will be goes against them. Is it not mean that they Congress Govt is with Goons rather common people? Vineet Kumar gave a correct analysis please read it here or go through original web link.


Source:-  http://mohallalive.com/2009/11/22/vineet-kumar-view-on-shiv-sena-attack-on-ibn7/
Retrieved on Nov 24, 2009IBN7 पर हमला लोकतंत्र पर हमला नहीं है!
22 November 2009
♦ विनीत कुमार
IBN Office Attacked in MumbaiIBN Office Attacked in Mumbai next
IBN7 और IBN7 लोकमत के मुंबई और पुणे दफ्तर में शिवसेना के गुर्गे नेजो कुछ भी किया, वेब लेखन के जरिये हम उसका विरोध करते हैं। दफ्तर के अंदरघुसकर शिव सैनिकों ने महिला मीडियाकर्मियों के साथ जो दुर्व्यवहार किया,हम उसके ख़‍िलाफ़ न्याय की मांग करते हैं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया के भीतरगुंडई और जाहिलपने को लेकर आये दिन किये जानेवाले प्रयोग और पेश कियेजानेवाले नमूनों का हम पुरज़ोर विरोध करते हैं। पिछले 15 दिनों के भीतर औरउससे भी पहले शिवसेना और उसी की कोख से पैदा हुआ मनसे ने लोकतंत्र के दोस्तंभों – विधायिका और मीडिया को कुचलने और ध्वस्त करने की जो कोशिशें कीहै, हम उसका विरोध करते हैं। संजय राउत जैसे देश के उन तमाम संपादकों औरपत्रकारों को धिक्कारते हैं, जिनकी औकात रहनुमाओं के पक्ष तक जाकर ख़त्महो जाती है। दिमाग़़ी तौर पर सड़ चुके लोगों के लेखन को फर्जी करार देतेहैं जिनके भीतर तर्क करने की ताक़त नहीं रह गयी है। हम चाहते हैं कि ऐसेलोगों को पत्रकारिता बिरादरी से तत्काल बेदखल किया जाए। हमारे इस विरोध केबावजूद अगर मुंबई सरकार इस दिशा में सक्रिय होकर कार्यवाही नहीं करती हैतो हम अपनी आवाज़ और तेज़ करेंगे। हम मीडिया की आवाज़ को किसी भी स्तर परदबने नहीं देंगे। हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को किसी के हाथों का खिलौनाबनने नहीं देंगे। हम देश की मीडिया को किसी भी रूप में तहस-नहस नहीं होनेदेंगे।
अपनी बात कहने और सच बयान करने की इच्छा रखनेवाले देश के बाकीपत्रकारों और मानव अधिकारों के पक्ष में बात करनेवालों की तरह मैं भीशिवसेना की बर्बरता का विरोध करता हूं। हम सबों को अपने-अपने स्तर से इसतरह की गतिविधियों को रोका जाना चाहिए। लेकिन ये सब लिखते-कहते हुए मैं उनशब्दों, अभिव्यक्तियों और मेटाफर पर थोड़ा इत्‍मीनान होकर सोचना चाहताहूं, जिसे कि मीडिया के लोग इस्तेमाल करते हैं। इस मामले में मैं समर्थनके स्तर पर जज़्बाती होते हुए भी अभिव्यक्ति के स्तर पर तटस्थ होना चाहताहूं। मुझे लगता है कि ऐसा करना शिवसेना जैसी बवाल मचाने वाली पार्टी केसमर्थन में जाने के बजाए मीडिया और खुद को देखने-समझने की कोशिश होगी।इसलिए तोड़फोड़ की घटना का लगातार दो दिनों तक विरोध किये जाने के बाद अबइस स्तर पर विचार करें कि हम किस लोकतंत्र पर हमले की बात कर रहे हैं?लोकतंत्र के पर्याय के तौर पर बतायी जानेवाली मीडिया के किस हिस्से परहमला किये जाने का विरोध कर रहे हैं? मीडिया अपने ऊपर हुए हमले कोलोकतंत्र पर किया जानेवाला हमला बता रहा है, इसे किस रूप में समझा जाए?कुल मिलाकर हम पहले तो लोकतंत्र को रिडिफाइन करना चाहते हैं और उसके बादउसके खांचे में काम कर रही मीडिया को समझना चाहते हैं?
एजेंडा (IBN7 का कार्यक्रम) में एंकर संदीप चौधरी ने कहा कि आगे जबहिंदी पत्रकारिता का इतिहास लिखा जाएगा तो इसे काला शुक्रवार के तौर परसमझा जाएगा। इसके पहले भी जो फ्लैश चलाये गये, उसमें बार-बार इस हमले कोलोकतंत्र पर किया जानेवाला हमला बताया गया। संदीप चौधरी ने काला शुक्रवारशब्द रूस की बोल्शेविक क्रांति से उधार के तौर पर लिया। बाकी के न्यूज़प्रोड्यूसरों और रिपोर्टरों ने भी लोकतंत्र पर हमला या चौथे स्तंभ पर हमलाजैसे शब्दों का प्रयोग कहीं न कहीं ऐतिहासिक संदर्भों से उठा कर किये।यहां दिक्कत इस बात की बिल्कुल भी नहीं है कि इतिहास से इस तरह के शब्दनहीं लिए जाने चाहिए। इतिहास के शब्दों और अभिव्यक्तियों को अगर मीडिया केलोग खींचकर वर्तमान तक लाते हैं तो हमें उसका स्वागत किया जाना चाहिए।लेकिन असल सवाल है कि क्या जिस लोकतंत्र पर हमले और उसे बचाने की बात कीजा रही है, वो महज कुछ वैल्यू लोडेड शब्दों के प्रयोग कर दिए जानेभर सेजिंदा रहेगा? क्या हम लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, आजादी इन सबोंको सिर्फ शब्दों के तौर पर जिंदा रखना चाहते हैं? हम इसे बोलने के लिहाजसे चटकीला भर बनाना चाहते हैं? क्या हम लोकतंत्र, सरोकार, मानवीयता और इसतरह के वैल्यू लोडेड शब्दों को पुतलों की शक्ल में बदलना चाहते हैं? ऐसेपुतले जिसे कि दागदार, धब्बे लगे, बदबूदार समाज और फ्रैक्चरड डेमोक्रेसीके बीच लाकर रख दिया जाए, तो सब कुछ अचानक से चमकीला हो जाए।चित्ते-चित्ते रंगों के बीच एकदम से चटकीले रंगों का प्रभाव पैदा हो जाए।क्या इन शब्दों का प्रयोग अपनी ज़ुबान को सिर्फ चटकीला बनाने भर के लिए है?
टेलीविजन मीडिया से ये सवाल पूछा जाना इसलिए भी ज़रूरी है कि लोकतंत्रकोई वैक्यूम में पैदा हुई चीज नहीं है। इसके भीतर हाड़-मांस, दिल-दिमाग़,जज़्बात और सोच लिये लोग मौजूद होते हैं। इसलिए जैसे ही आप लोकतंत्र शब्दका प्रयोग करते हैं, आपको लोकतंत्र को लोकेट तो करना ही होगा। पहले तोआपको और फिर हमें समझाना होगा कि आप लोकतंत्र से क्या समझ रहे हैं? आप जिसलोकतंत्र की बात कर रहे हैं, उसके भीतर कौन से लोग शामिल हैं? आप किसकेवीहॉफ पर अपने को लोकतंत्र का पर्याय बता रहे हैं? क्या आप खुद से पैदाकिये जानेवाले लोकतंत्र को संबोधित कर रहे हैं या फिर अभी भी देश के भीतरबहाल लोकतंत्र को लेकर बात कर रहे हैं? मुझे नहीं लगता कि मीडिया पर कियेजानेवाले हर हमले को लंबे समय तक लोकतंत्र पर किया जानेवाला हमला बतायाजाना आगे जाकर आसान होगा। तत्काल जज़्बाती होकर हम मीडिया के पक्ष मेंहोते हुए भी इत्‍मीनान होने पर सवाल तो ज़रूर करेंगे कि हम किस मीडिया केपक्ष में खड़े हैं? उसके सालभर का चरित्र क्या है? हम न तो लोकतंत्र कोमुहावरे की शक्ल देना चाहते हैं और न ही मीडिया को मुहावरे के तौर परइस्तेमाल करने देना चाहते हैं? इसलिए ज़रूरी है कि हम ऐसे में हम मीडियाहमलों के बीच लोकतंत्र के संदर्भों को समझने की कोशिश करें।
एक बात पर आप लगातार ग़ौर कर रहे होंगे कि पहले के मुकाबले निजी चैनलोंपर राजनीतिक पार्टियों, धार्मिक संगठनों और संस्थाओं की ओर से हमले तेज़हुए हैं। नलिन मेहता ने अपनी किताब INDIA ON TELEVISION और पुष्पराज नेअपनी किताब नंदीग्राम डायरी में सकी विस्तार से चर्चा की है। हाल ही मेंहमने देखा कि गुजरात में नरेंद्र मोदी की सरकार ने आजतक को लंबे समय तककेबल पर आने से रोक लगा दी। आसाराम बापू के चेले-चपाटियों ने आजतक कीसंवाददाता पर हमले किये और घायल कर दिया। इसके पीछे की लंबी रणनीति होसकती है। लेकिन एक समझ ये भी बनती है कि जिस तरह मीडिया और चैनलों केकार्पोरेट की शक्ल में तब्दील होने की प्रक्रिया तेज़ हुई है, राजनीतिकपार्टियों के प्रति उसकी निर्भरता पहले से कम हुई है। साधनों के स्तर परतो कम से कम ज़रूर ही ऐसा हुआ है। दूसरी तरह कार्पोरेट और विश्व पूंजी कीताकत से इन चैनलों का मनोबल भी बढ़ा है। इसके आगे राजनीतिक पार्टियों कीक्षमता का आकलन इनके लिए आसान हो गया है। इसलिए अब ये स्थिति बन जाती हैकि कोई भी चैनल किसी राजनीतिक पार्टी, धार्मिक संगठन या संस्थानों पर बहुतही साहसिक तरीके से स्टोरी कवर करता है, प्रसारित करता है। ऐसे में येबिल्कुल नहीं होता कि राजनीति स्तर की निर्भरता उसकी एकदम से ख़त्म होजाती है, लेकिन इतना ज़रूर होता है कि मैनेज कर पाना और संतुलन बना पानापहले के मुकाबले आसान हो गया है। यहां राजनीति और मीडिया की ताक़त कीआज़माइश होने के बजाय राजनीति और कार्पोरेट की आज़माइश होनी शुरु होती है।कार्पोरेट का पलड़ा मज़बूत होने की स्थिति में चैनल और मीडिया बहुत आगे तकराजनीतिक पार्टियों की धज्जियां उड़ाते हैं, धार्मिक संगठनों पर बरस पातेहैं। हमें ये सबकुछ लोकतंत्र का पक्षधर होने के स्तर पर दिखाया-बताया जाताहै। एक हद तक सही भी है कि कम से कम राजनीतिक मामलों में दूरदर्शनी दिनोंके मुकाबले निजी चैनल ज़्यादा मुखर हुए हैं। चैनल की इस बुलंदी का स्वागतकिया जाना चाहिए।
लेकिन दूसरी स्थिति पहली स्थिति से कहीं ज़्यादा ख़तरनाक हैं। अगरबारीकी से समझा जाए तो ये लोकतंत्र के नहीं बचे रहने से जितना नुक़साननहीं है उससे कहीं ज़्यादा नुकसान टेलीविज़न की ओर से पैदा किये जानेवालेऔर तेज़ी से पनपनेवाले लोकतंत्र से है। टेलीविज़न का लोकतंत्र, जनता केलोकतंत्र को लील जाने की फिराक में है। इसके हाल के कुछ नमूनों पर गौरकरें तो हमें अंदाजा लग जाएगा। तालिबान और आतंकवाद पर स्पेशल स्टोरीदिखाते हुए एनडीटीवी इंडिया के रवीश कुमार ने कहा कि तालिबान में देश काकोई भी रिपोर्टर नहीं है लेकिन वहां की ख़बरें रोज़ दिखायी जा रही है। येखबरें यूट्यूब की खानों से फुटेज निकालकर बनायी जा रही है। हंस के वार्षिकसमारोह में अरुंधति राय ने कहा कि सलवाजुडूम इलाके में देश के किसी भीपत्रकार को जाने की इजाज़त नहीं है। पाखी के वार्षिकोत्सव में पुण्यप्रसून वाजपेयी ने कहा कि विदर्भ को आइडियल शहर घोषित किया गया लेकिन वहांचालीस हज़ार किसानों ने आत्महत्याएं की। आज मीडिया में गांव नहीं है,मीडिया से जुड़े लोग गांव की स्थितियों को संवेदना के स्तर पर नहीं ला पारहे हैं। 2 नवंबर को जब शर्मिला इरोम को बर्बर प्रशासन के ख़‍िलाफ़ अनशनपर बैठे दस साल पूरे हो गये, देशभर के अनुभवी मीडियाकर्मी शाहरुख खान केबर्थ केक काटने के फुटेज लेने के लिए बेकरार होते रहे। एक ही साथ नक्सलवादऔर सरकारी कार्रवाइयों के ख़ौफ़ में झारखंड के आदिवासी आशंका के दिन खेपरहे होते हैं, देशभर के चैनल पी चिदंबरम की बाइट को उलट-पुलट कर सुलझानेमें जुटे रहे। देश के एक चैनल पर ताला लग जाने से करीब चार सौ मीडियाकर्मीरातोंरात सड़कों पर आ जाते हैं, वो कभी भी लोकतंत्र का हिस्सा नहीं बननेपाता। तो क्या ये मीडिया तय करेगा कि लोकतंत्र के भीतर का कौन सा हिस्साटेलीविजन पर आकर लोकतंत्र की शक्ल लेगा और कौन सा नहीं? अगर सचमुच ऐसा हैतो हमें मीडिया के लोकतंत्र पर नये सिरे से विचार करना होगा।
आप अगर चैनल की इन ख़बरों के बीच सरोकार से जुड़ी ख़बरों और हिस्सेदारीकी मांग करेंगे तो टीआरपी का शैतान सामने आ जाएगा। इनमें से सारी घटनाएंटीआरपी पैदा करने के लिहाज से बांझ है। इसलिए टीआरपी तो उन्हीं ख़बरों सेपैदा होती है, जिनमें कि मेट्रो और मध्यवर्ग की ऑडिएंस दिलचस्पी ले। संकेतसाफ है। मंजर साफ है। फीदेल कास्त्रो के पद को उधार लेकर कहा जाए तो येसांस्कृतिक संप्रभुता का संकट है। टेलीविज़न देश की संप्रभुता को बचायेरखने के दावे से लैस है। लेकिन उसके भीतर के ठोस के जार-जार हो जाने कीचिंता बिल्कुल भी नहीं है।
देश की सत्तर फीसदी आबादी को जब पीने को पानी नहीं है, बच्चों के हाथोंमें स्लेट नहीं है, स्त्रियों की आंखों में सपने नहीं है – टेलीविजन परकीनले है, विसलरी है, पॉकेमॉन है, बार्बी है, मानव रचना यूनिवर्सिटी है,लक्मे है, झुर्रियों को हटाने के लिए पॉन्डस है। एक धब्बेदार, बदबूदार औरलाचार लोकतंत्र टेलीविज़न पर आते ही चमकीला हो उठता है। पिक्चर ट्यूब सेगुज़रते ही देश का सारा मटमैलापन साफ हो जाता है। सवाल यहां बनते हैं किटेलीविज़न के दम पर जो आइस संस्कृति (information, entertainment,consumerism) एक ठंडी संस्कृति के बतौर पनप रही है, क्या उसी लोकतंत्र परहमला हो रहा है और उसी को बचाये जाने की बात की जा रही है? हम वर्गहीनसमाज जैसे मार्क्सवादी यूटोपिया से बाहर निकलकर भी सोचें तो क्या ज़रूरीहै कि इस आइस संस्कृति के बूते देशभर के लोगों को खींच-खींचकर मध्यवर्गीयमानसिकता के खांचे में लाया जाए। ये मानसिकता चार रुपये लगा कर अपनी पसंदऔर नापसंद जाहिर करे। क्या हमें इस लोकतंत्र पर हमला किये जाने से अफ़सोसहोगा? दुर्भाग्य से इस लोकतंत्र पर हमला कभी नहीं होना है लेकिन बदकिस्मतीहै कि जिस लोकतंत्र पर हमले हो रहे हैं उसे शायद ही कभी बचाया जा सकेगा।इसलिए लोकतंत्र के रैपर में मीडिया जिसे बचाना चाहती है, पहले उसे साफ करदे, तो पक्षधरता कायम करने में आमलोगों को सहूलियतें होगी। क्योंकिजज़्बाती होने की वैलिडिटी जल्द ही ख़त्म होने जा रही है।
vineet kumar(विनीत कुमार।युवा और तीक्ष्‍ण मीडिया विश्‍लेषक। ओजस्‍वी वक्‍ता। दिल्‍लीविश्‍वविद्यालय से शोध। मशहूर ब्‍लॉग राइटर। कई राष्‍ट्रीय सेमिनारों मेंहिस्‍सेदारी, राष्‍ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन। ताना बाना और टीवी प्‍लस नाम के दो ब्‍लॉग। उनसे vineetdu@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

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