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पहचान के लिए जद्दोजहद कर रहे अवध के नवाब Nababs are Struggling for their Identity

  • पहचान के लिए जद्दोजहद कर रहे अवध के नवाब Nababs (Kings) are Struggling for their Identity
  • It is says that Nababs are not Nabab by their post but also by his by their habit and daily life styles. Now these days if Nabab wearing cloths like ancient India than people will laugh. Because that will look like a joker. Is it? OK. Well. Here as I read this news paper that in this modern democratic era some one still calming themselves as a Nabab. How? By taking pension which was constituted by British. For what? Because they are removed by their post by British. Well. For me that was to suppress them because hunger can do nay things. But now for me that is a beggar which was constituted by British. But they taking that for surviving their so called identity of nabab. Yes according to news that is symbolically but for me it is symbolically showing that they are dependent on that. Is it not matter surprised.
  • http://in.jagran.yahoo.com/news/national/general/5_1_5907947.html
Nov 02, 2009, 11.39AM. (Online Edition) लखनऊ।नवाब मिया सैयद नकी रजा। उम्र करीब 70 बरस। पता-कश्मीरी मोहल्ला, लखनऊ,लेकिन यह उनकी पूरी पहचान नहीं है। असल पहचान को जिंदा रखने के लिए इसबुजुर्ग को कितने पापड़ बेलने पड़ रहे हैं, जरा गौर फरमाइये। नवाब साहब अवधकी बहू बेगम के वंशज हैं। उन्हें वसीका [अंग्रेजों के जमाने से नवाबों कीसंपत्तियों के बदले उनके वंशजों को मिलने वाली पेंशन] मिलता है।
नवाब साहब के घर से वसीका दफ्तर तक रिक्शे का किराया 25 रुपये है।यानि वसीका लेने के लिए उन्हें किराये के 50 रुपये खर्च करने पड़ते हैं। इसउम्र में आने-जाने और दफ्तर में लगने वाले दो-तीन घटे का वक्त भी कितनातकलीफदेह होता होगा, उसे भी आसानी से समझा जा सकता है। नवाब साहब को वसीकाकितना मिलता है, यह सुनकर आप चौक जाएंगे। सिर्फ दो रुपये 98 पैसे महीने!इस बावत सवाल करने पर नवाब साहब नाराज हो जाते हैं, कहते हैं, तो क्या मैंअपनी पहचान को भी खत्म कर दूं? यही तो एक दस्तावेजी सबूत है, वर्ना एक अरबकी आबादी में कौन यकीन करेगा कि यह बूढ़ा बहू बेगम का वंशज है। मैं अपनीतकलीफ, आराम के लिए अपनी आने वाली नस्लों से नइंसाफी नहीं कर सकता। अपनेजीते जी, मैं ऐसा नहीं होने दूंगा। अपनी पहचान जिंदा बनाए रखने के लिएजद्दोजहद करने वाले नवाब मिया सैयद नकी रजा अकेले नहीं है।
अवध के शासकों के करीब 1700 वशज इस तरह की जद्दोजहद में शामिल हैं।सभी को वसीका मिल रहा है, लेकिन यह रकम एक रुपये, दो रुपये, पाच रुपये, दसरुपये बीस रुपये है। कुछ ही खुशकिस्मत हैं, जिन्हें चार सौ या पाच सौरुपये मिलते हैं। इनके लिए रकम उतनी महत्वपूर्ण नहीं है, जितना अपनी पहचानको जिंदा रखना। यही वजह है कि जो रकम सुनने में बहुत मामूली लगती है, उसेहासिल करने के लिए होने वाली जहमत उनके लिए कोई मायने नहीं रखती।
वाजिद अली शाह के खानदानी शाह आलम से ही मिलिए। सवा पाच रुपये महीनेवसीका मिलता है। वह खुद सवाल करते हैं, सवा पाच रुपये इस दौर में क्यामायने रखते हैं? पर इसे लेने में उनके सौ रुपये खर्च हो जाते हैं। इसकेलिए इतनी जिद्दोजहद क्यों? जवाब लगभग वही, बात सवा पाच रुपये की नहीं है।बात अपनी जड़ों को सींचते रहने की है। हम जिस रोज सवा पाच रुपये लेना छोड़देंगे, उस दिन हम अपनी जड़ काट देंगे। ऊपर से जो नस्ल चली आ रही है, वह कहातक पहुंची यह पहचान खत्म। हम कौन हैं, हमारे बच्चे किस खानदान से ताल्लुकरखते हैं, यह पहचान भी खत्म। शाह आलम कहते हैं, सवा पाच रुपये के लिए सवापाच हजार रुपये खर्च करने पड़ेंगे तो भी मैं तैयार रहूंगा।
एक और वसीकेदार हैं काजिम अली खा। वह मोहम्मद अली शाह के वजीररफीकउददौला बहादुर के वंशज हैं। इन्हें 26 रुपये वसीका मिलता है।कबूतरबाजी के शौकीन खा साहब कहते हैं कि उनके कबूतर ही महीने में तीन सौरुपये का दाना खा जाते हैं। साढ़े पाच रुपये पाने वाली मलका बेगम भी पहचानके लिए जूझ रही हैं।

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