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Defence vs. Toilet रक्षा बनाम शौचालय Jauram Ramesh

सौजन्य से नीलाक्षी
ऐसे तथ्य हैं जो किसी से छिपे नहीं हैं. पर इन के संबंध में बोलना एक तरह से मुख्यधारा में वर्जित है – देश की सुरक्षा के नाम पर. और संभवत: गौरव के नाम पर. विशेष कर शासक वर्ग के नेताओं की ओर से तो इन बातों पर शायद गलती से भी कभी बोला जाता हो.

जयराम रमेश ऐसे कांग्रेसी नेताओं में से हैं जो अपने सामाजिक सरोकारों के लिए चर्चा में रहते हैं. वह मंत्री हैं और अक्सर ऐसे वक्तव्य देने से चूकते नहीं हैं जो उनकी सामाजिक चिंताओं को व्यक्त करते हैं. इधर ये चिंताएं उनके मंत्रालय के कामों से जुड़ी होती हैं. जैसे कि जब वह पर्यावरण मंत्रालय देख रहे थे तो उन्होंने नदियों और उन पर बनाए जाने वाले बांधों पर कुछ ऐसी बातें कहीं जो सही तो थीं पर सत्ताधारियों के लिए असुविधाजनक थीं. नतीजा हुआ कि उन्हें पर्यावरण से हटा कर ग्रामीण विकास मंत्रालय भेज दिया गया है. इधर उन्होंने फिर से एक ऐसी बात कही है जो हमारी आधारभूत समस्या से जुड़ी है, लेकिन शायद ही किसी अखबार ने इस पर चर्चा की जरूरत समझी हो. हां, समाचार के रूप में यह एक-आध जगह छपी जरूर.
सुरक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) और ग्रामीण विकास मंत्रालय के पेयजल व स्वच्छता विभाग के बीच हुए एक समझौते के अनुसार डीआरडीओ ग्रामीण विकास मंत्रालय को ऐसे शौचालय लगाने में मदद करेगा जो पर्यावरण के लिए हानिकारक नहीं हैं. यह ठोस गंदगी को ज्वलनशील गैस और पानी को सिंचाई योग्य बना देगा. पहले चरण में 150 करोड़ रुपए की लागत से एक लाख शौचालय देश के विभिन्न भागों में तीन सौ पंचायतों में लगाए जाएंगे. प्रत्येक शौचालय पर फिलहाल रु. 15 हजार खर्च आता है. इसे बाद में घटा कर 10 हजार पर पहुंचाया जाएगा.
पर जयराम रमेश ने इस संदर्भ में जो बात कही वह देश के पूरे विकास के तौर-तरीके पर गंभीर टिप्पणी है. उन्होंने कहा कि आज देश का रक्षा बजट 1.93 ट्रिलियन (एक लाख 93 हजार करोड़) है जो कि देश के कुल व्यय का 14 प्रतिशत है. दूसरी ओर ग्रामीण विकास, पेय जल और सफाई का कुल खर्च 99 हजार करोड़ है.
उन्होंने कहा कि एक लाख गांवों में ये पर्यावरण को सुधारने वाले शौचालय एक राफेल विमान की कीमत के बराबर पड़ते हैं. इधर भारत ने फ्रांस से 126 राफेल लड़ाकू विमान लेने का सौदा किया है. यह सौदा छोटे अनुमान से भी 1,200 लाख डालर का बैठता है. दूसरे शब्दों में एक राफेल जहाज की कीमत से लगभग एक लाख गांवों में ऐसे शौचालय लगाए जा सकते हैं जो स्वच्छता के अलावा ईंधन और सिंचाई में भी मददगार साबित होंगे.
यूनीसेफ के विश्व स्वास्थ्य संगठन की संयुक्त जांच कार्यक्रम रिपोर्ट- 2010 के अनुसार भारत में लगभग 60 प्रतिशत लोग आज भी खुले में शौच जाने को मजबूर हैं. 28 जुलाई को प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार देश के शहरी क्षेत्रों में पांच करोड़ लोग खुले में शौच करने को मजबूर हैं. देश का 80 प्रतिशत खुला पानी – नदी, तालाब आदि – इसी गंदगी के कारण प्रदूषित रहता है. देश के 15 प्रमुख शहरों में 70 प्रतिशत घरों में स्नानागार-शौचालय या सीवर व्यवस्था नहीं है. यही हाल स्कूलों का है. दिल्ली की 60 प्रतिशत स्लम बस्तियों में सीवर व्यवस्था नहीं है. इस समस्या के चलते देश भर में 23 प्रतिशत लड़कियां माहवारी की समस्या के कारण स्कूल ही छोड़ देती हैं. शहरों में महिलाएं यौन उत्पीड़न से लेकर अपमानजनक व्यवहार का शिकार होती हैं. देश के 4861 नगरों में तो आंशिक सीवर की व्यवस्था भी नहीं है. यह उस देश की हालत है जो स्वयं को विश्व की नई महाशक्ति कहता है.
पर मसला सिर्फ साफ-सफाई या शौचालयों तक का नहीं है. पिछले कुछ वर्षों में एक के बाद एक सरकारों ने स्वास्थ्य, शिक्षा, सार्वजनिक यातायात तथा अन्य कल्याणकारी कामों से हाथ खींचना शुरू कर दिया है. यह अचानक नहीं है कि हमें सुनने को मिलता है कि माता-पिता के पास सिर्फ दो सौ रुपए न होने के कारण एक नवजात को इनक्यूबेर की सुविधा नहीं मिल पाई और वह मर गया.. या किसी औरत ने अपना बच्चा पचास रुपए में बेच दिया. लगभग सभी प्राथमिक जरूरतों का बड़े पैमाने पर निजीकरण किया गया है और पैसा कमाने पर सभी बंदिशों को खत्म किया जा रहा है. दूसरे शब्दों में जनता को निजी क्षेत्र के हाथों छोड़ दिया गया है.
दूसरा यह भी किसी से छिपा नहीं है कि देश में खरब पतियों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है. ऐसे धनपतियों का उदय हुआ है जिनके मात्र चार सदस्यों के लिए 26 मंजिला और हजारों करोड़ का मकान है. मध्यवर्ग का विस्तार हुआ है और विलासिता की वस्तुओं के उपभोग को बढ़ावा मिला है.
साफ है कि यह हमारे राजनीतिक नेतृत्व की दृष्टिहीनता का नतीजा है. बेहतर तो यह होता कि हम अपनी आर्थिक नीतियों में उपभोक्तावाद को बढ़ावा देने की जगह देश के संसाधनों के न्यायसंगत वितरण की ओर ध्यान देते. अपनी सैन्य महत्त्वाकांक्षाओं को सीमित रख, कोशिश करते कि देश में फैली बदहाली और भीषण असमानता घटे. अपने पड़ोसियों से संबंध सुधारने की कोशिश करते. अपने आंतरिक कानून और व्यवस्था के मामलों में भी डंडे का सहारा न लेकर उनके राजनीतिक समाधान की कोशिश करते. हो यह रहा है कि जैसे-जैसे हमारा आर्थिक विकास असंतुलित होता गया है आंतरिक तनाव और टकराहट बढ़ती गई है.

http://www.samayantar.com/editorial-toilets-vs-weapons/

हमारे यहाँ कहते हैं जेंट्स टायलेट कहा नहीं हैं ... बस हिम्मत चाहिए|
लगभग दस दिन पहले, एक 20-25 साल की युवती जो अछे कपडे पहने थी, उसके साथ जो महिला थी वह भी अछे कपडे पहने थी| जिससे साफ़ होता था वह [बेहद] गरीब तो नहीं थी| उस युवती को खुले सड़क पर एक नाम मात्र के झड़ी के सामने टायलेट करना पड़ा| वह भी दिन के बारह बजे| जानते हैं वह जगह कौन सा हैं| JNU, IIT, NCERT, National Information Commission, National Defence Study, Ministry of Foreign Affair Office, Training Center for Indian Foreign Service के पास की जगह| यहाँ कोई सार्वजनिक शौचालय नहीं है| - अनिल 

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