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जे. एन. यु. में 1 फरवरी 2012 को ‘मूक नायक’ नाटक का सफल मंचन रमेन्द्र
चक्रवर्ती (शोधार्थी, कला एवं सौंदर्यशास्त्र संसथान, जवाहरलाल नेहरू
विश्वविद्यालय, नई दिल्ली) के निर्देशन में ‘सहर’ से जुड़े जे. एन. यु. और गौतम
बुद्ध विस्वविद्यालय, नोयडा, उत्तर प्रदेश के छात्रों नें किया, इसमें ज्यादातर
कलाकार जी. बी. यु. के थें| निर्देशक और कलाकारों ने यह साबित कर दिया की विज्ञान
के विद्यार्थी भी अच्छे कलाकार हो सकतें हैं| नाटक की परिकल्पना और संगीत संयोजन
अंजना घोषाल का था, नाटक की परिकल्पना काबिले तारीफ थी क्योकि, इतने कम समय में एक
महान व्यतित्व के जीवन को दर्शकों के सामने प्रस्तुत करना आसान नहीं था परन्तु
अंजना घोषाल ने अपनी परिकल्पना से बाबा साहब के विचारों को लोगो तक पहुचाया|
नाटक में मुख्य रूप से डा. भीम राव आंबेडकर के जीवन संधर्ष, उस समय की
सामाजिक परिस्थितियाँ और भारतीय समाज में मानववादी मूल्य और सम्मान की स्थापना में
आंबेडकर के संघर्ष और परिणाम का मंचन किया गया| आंबेडकर इस देश के मूक नायक नहीं
थे, बल्कि वे भारत और विश्व के मानववादी मूल्यों और सम्मान के लिए अपनी बात गर्जना
के साथ हर जगह कह रहें थें| इस नाटक का नाम ‘मूक नायक’ उनके द्वारा स्थापित और
सम्पादित पत्रिका ‘मूक नायक’ के नाम पर रखा गया था| नाटक यह प्रस्थापित करने में
सफल रहा कि, उनके द्वारा स्थापित मानववादी मूल्य और विचार आज भारत और विश्व में
‘मूक नायक’ की तरह काम करती है, जिसकी प्रासंगिकता और गर्जना; सम्मान, स्वतंत्रता
और समानता की चाह रखने वाले हर समाज में देखने को मिलती है|
नाटक की सुरुआत पेशवाओं के शासन काल में दलितो पर हो रहे अमानवीय अत्याचार
के चित्रण के साथ होता है| इन्हीं परस्थितियों में आंबेडकर के परिवार और बचपन का चित्रण
होता है, जो असल में उनके जीवन चित्रण से ज्यादा तल्कालिक समाज की संरचना और
परिस्थितियों को दिखता है| नाटक के मूल्यांकन करें तो कुछ अंतरो के साथ उनका जीवन
भी उनके गुरु ज्योतिबा फुले की तरह दिखाया गया| हालाँकि यह नाटक में कही भी अंकित
नहीं था|
नाटक आंबेडकर को सामाजिक सम्मान और आजादी के लिए संघर्शील दिखता है| नाटक
आजादी के नए प्रतिमान को गढते हुए, यह दिखलाती है कि आजादी की लड़ाई सिर्फ बम फोडना,
जेल जाना या भूख हड़ताल करना ही नहीं है| गुलामो के गुलाम और भूखे समाज के लिए यह
शायद यह प्रासंगिक भी नहीं था| ‘मूक आवाज’ जब यह दिखाती है कि आंबेडकर आजादी के लिए
देश-विदेशो में अपनी लेखनी और जमीनी रूप से संघर्षरत है, तब नाटक भारतीयों के
बहाने अपनी सीमा को लाँघ कर वैश्विक स्तर पर चिंतन करती होती है|
‘मूक आवाज’ में तब अजीब सी गर्जन आ जाती है जब डा. भीम राव आंबेडकर और
मोहनदास करमचंद गाँधी की पहली मुलाकात में देश की परिस्थितियों और रणनीतियों के
बारे में विस्तृत चर्चा होती है| पैसे के अभाव में जब आंबेडकर दंपत्ति के संतान की
मत्यु हो जाती है तब भी रमाबाई ना तो खुद मानवता की सेवा से वे पीछे हटती है और ना
ही आंबेडकर को रोकती है, यहाँ रमाबाई के त्याग, करुनाई और संघर्ष को नाटक उभारने
में सफल रहता है| डा. आंबेडकर के लिए मानव-मानव सामान था, इसकी पुष्टि नाटक रमाबाई
के मत्यु के पश्चात उनके जीबन में सबिता का प्रवेश के रूप में भी दिखता है|
पूरा नाटक शोध-प्रस्तुति की शैली में दिखाया गया है| नाटक की सुरुआत
एक बौद्ध भिछु के द्वारा आंबेडकर पर शोध की शुरुआत से होता है, बिच-बिच में बौद्ध
भिच्छु स्वयं ही शोध प्रस्तुतिकरण और विश्लेषण हेतु उपस्थित होता है| नाटक का अंत अंतिम
शोध प्रस्तुति के साथ होता है| नाटक के अंत में दर्शक तालियाँ ना बजकर यह सोचने पर
विवश हो जाता है कि हम मानववाद के विश्व दर्शन में कहा खड़े हैं?
सभी कलाकारों ने सहयोग, समन्वय और मिहनत के साथ काम किया| प्रमुख कलाकार में मुकेश, मनीष, पांखी ने
क्रमशः आंबेडकर, गाँधी और रमाबाई के चरित्र को जिवंत कर दिया| इस नाटक के निर्देशक
रमेन्द्र चक्रवर्ती पिछले कई वर्षों से लगातार समाज व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ
अपने नाटकों के माध्यम से आवाज उठाते रहें हैं| वीरेंदर सिंह ने गौतम बुद्ध विश्विद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय के बिच का संयोजन का कम किया.
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