राहत की बात है कि देश समाचार चैनलों
के आत्ममुग्ध संपादकों और पत्रकारों के कहे मुताबिक नहीं चल रहा
इधर
टीवी चैनलों के कुछ संपादक-पत्रकारों को यह भ्रम हो गया है कि
वही देश चला रहे हैं. उन्हें यह भी भ्रम है कि वे जैसे चाहेंगे, देश वैसे
ही चलेगा या उसे वैसे ही चलना चाहिए. पत्रकारों में यह भ्रम नई बात नहीं
है. कुछ वर्षों पहले एक बड़े अंग्रेजी अखबार के संपादक ने अपनी हैसियत का
बखान करते हुए दावा किया था कि दिल्ली में प्रधानमंत्री के बाद सबसे ताकतवर
कुर्सी उन्हीं की है. लेकिन नई बात यह है कि टीवी चैनलों के कई पत्रकारों
को यह मुगालता कुछ ज्यादा ही होने लगा है. यही नहीं, कई चैनलों के
संपादक-पत्रकार अपने को प्रधानमंत्री से भी ताकतवर मानने लगे हैं. कुछ तो
खुद को कानून, न्याय प्रक्रिया, संविधान आदि से भी ऊपर मान बैठे हैं. वे
खुद के चेहरे, आवाज़ और विचारों से इस हद
तक आत्ममुग्ध हैं कि माने-ठाने बैठे हैं कि देश उनकी तरह ही सोचे, बोले, देखे और सुने. इसके लिए वे हर रात प्राइम टाइम पर अपनी कचहरी लगाकर बैठ जाते हैं जहां फैसले पहले से तय होते हैं और बहस सिर्फ उसकी पुष्टि और दर्शकों के मनोरंजन के लिए होती है.
तक आत्ममुग्ध हैं कि माने-ठाने बैठे हैं कि देश उनकी तरह ही सोचे, बोले, देखे और सुने. इसके लिए वे हर रात प्राइम टाइम पर अपनी कचहरी लगाकर बैठ जाते हैं जहां फैसले पहले से तय होते हैं और बहस सिर्फ उसकी पुष्टि और दर्शकों के मनोरंजन के लिए होती है.
लेकिन
भ्रम, भ्रम होता है. वह सच नहीं हो सकता. समाचार चैनलों के भारी
राजनीतिक-सामाजिक प्रभाव के बावजूद सच यह है कि संपादक-पत्रकारों के कहे
मुताबिक देश नहीं चल रहा है और न ही वे देश चला रहे हैं. ऐसा नहीं है कि यह
तथ्य इन आत्ममुग्ध संपादक-पत्रकारों को पता नहीं. लेकिन वे इसे स्वीकार
करने के लिए तैयार नहीं. इस कारण उनमें से अधिकांश में एक खास तरह की जिद,
आक्रामकता, घमंड और बड़बोलापन आ गया है. नतीजा- वे सुनते नहीं, सिर्फ बोलते
हैं. बहस नहीं करते, सिर्फ फैसला सुनाते हैं और संवाद नहीं, एकालाप करते
हैं.
ऐसे ही एक टीवी संपादक-पत्रकारों के शिरोमणि हैं- अंग्रेजी
समाचार चैनल ‘टाइम्स नाउ’ के संपादक अर्णब गोस्वामी. उन्हें भी यह मुगालता
है कि देश वही चला रहे हैं. उनका यह मुगालता जिद की हद तक पहुंच चुका है.
इस जिद से निकली आक्रामकता उनकी सबसे बड़ी पहचान बन चुकी है. असल में, उनकी
एंकरिंग की सबसे बड़ी ‘खूबी’ उनकी इसी आक्रामकता को माना जाता है जो
बड़बोलेपन की सीमा को कब का पार कर चुकी है. इसी से जुड़ी अर्णब की दूसरी
बड़ी ‘खूबी’ यह है कि अपने आगे वे किसी की नहीं सुनते. उनके सवालों, तर्कों
और तथ्यों का कोई जवाब हो या नहीं हो लेकिन उनके फेफड़ों का कोई जवाब नहीं
है.
निश्चय ही, समाचार चैनलों के लिए थोक के भाव बंटने वाले
पुरस्कारों में सबसे ताकतवर फेफड़े का पुरस्कार निर्विवाद रूप से अर्णब
गोस्वामी को मिलना चाहिए. उनकी आत्ममुग्धता का आलम यह है कि हर रात प्राइम
टाइम पर कभी एक घंटे, कभी डेढ़ और कभी दो घंटे तक कथित तौर पर ‘देश के सबसे
महत्वपूर्ण मुद्दों’ पर अपने चुनिंदा अतिथियों के साथ चर्चा में 60 प्रतिशत
समय टीवी स्क्रीन पर खुद ही बोलते या दीखते हैं. इन चर्चाओं की खास बात यह
है कि उनके कुछ प्रिय विषय और प्रिय अतिथि हैं जो घूम-फिरकर हर
दूसरे-तीसरे-चौथे दिन चैनल पर आ जाते हैं. उनका सबसे प्रिय और सदाबहार विषय
है- पाकिस्तानी आतंकवाद. कहने की जरूरत नहीं है कि अर्णब पाकिस्तान और
आतंकवाद को एक-दूसरे का पर्याय मानते हैं. आश्चर्य नहीं कि पाकिस्तान और
आतंकवाद पर होने वाली उनकी सभी बहसों का निष्कर्ष बिना किसी अपवाद के एक ही
होता है- पाकिस्तान एक दुष्ट और विफल राष्ट्र है, इस्लामी आतंकवाद की धुरी
और उसका निर्यातक है, तालिबान और अल-कायदा उसे चला रहे हैं और भारत को
उससे बात करने की बजाय उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए. मुंबई में
26/11 के आतंकवादी हमलों के बाद अर्णब का यह अंध पाकिस्तान विरोध
युद्धोन्माद भड़काने तक पहुंच गया था. अगर देश सचमुच उनके कहे मुताबिक चला
होता तो अब तक पाकिस्तान के साथ चार-पांच बार युद्ध जरूर हो चुका होता.
अलबत्ता दो परमाणु हथियारों से लैस देशों के बीच इन युद्धों का नतीजा क्या
होता, बताने की जरूरत नहीं है. इसी तरह, अगर देश अर्णब और उनके ‘हिज
मास्टर्स वॉयस’ अतिथियों के कहे अनुसार चला होता तो माओवाद से लड़ने के नाम
पर अब तक सेना और वायु सेना उतारी जा चुकी होती. बस्तर-दंतेवाड़ा में कारपेट
बम बरसाए जा रहे होते. फिर ना जाने कितने निर्दोष लोगों का खून बहा
होता?
लेकिन राहत की बात यह है कि देश इन
आत्ममुग्ध टीवी संपादक-पत्रकारों के कहे मुताबिक नहीं चल रहा है. उम्मीद
करनी चाहिए कि देश आगे भी इसी तरह अपना संयम बनाए रखेगा.
1 Comments
good.
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